कबीर दास की जीवनी 2024 | Kabir Das Biography in Hindi

Kabir Das ki Jivani : आज कबीर दास को भारत में भला कौन नहीं जानता, आज पूरे भारत में कबीर दास की कविताएं और रचनाएं काफी बड़ी संख्या में पढ़ी और सुनी जाती हैं लोगों को उनके सकारात्मक विचार और उनकी लिखने की कला काफी पसंद आती है। कबीर दास ने कभी भी जाति धर्म उच्च नीच भेदभाव जैसी चीजों को महत्व नहीं दिया बल्कि वह हमेशा ही इन बड़ी समस्याओं को दूर करने के प्रयासों में लग रहे उन्हें पता था कि यह कुछ ऐसी समस्याएं हैं जिसके कारण भारत की प्रगति में बाधा आ सकती है।

कबीर दास की रचनाएं और कविताएं केवल हिंदू धर्म में ही नहीं बल्कि सिक्ख और मुस्लिम धर्म में भी काफी प्रसिद्ध है उनके द्वारा लिखी गई रचनाएं सिख धर्म के धर्मग्रंथ गुरु ग्रंथ साहिब, संत गरीब दास के सतगुरु ग्रंथ साहिब और धरमदास के कबीर सागर में पाए जाते हैं और मुस्लिम धर्म में विशेषकर सूफियों द्वारा भी गाई जाती हैं।

कबीर दास सभी आयु वर्ग के लिए एक प्रेरणादायक कवि थे, जब भी उनकी कविताएं पढ़ी जाती हैं तो वो मन और आत्मा को छू जाती हैं। कबीर दास और Kabir Das ki Jivani के बारे में अनेक प्रकार की बातें कहीं जाते हैं जिसके बारे में हमने इस Post में विस्तार से बताया है तो चलिए अब कबीर दास जी के जीवन परिचय के बारे में विस्तार से जानते हैं।

कबीर दास की जीवनी | Kabir Das Biography in Hindi

कबीर दास का जन्म 1398 ई० में हुआ था। कबीर दास के जन्म के संबंध में लोगों द्वारा अनेक प्रकार की बातें कही जाती हैं कुछ लोगों का कहना है कि वह जगत गुरु रामानंद स्वामी जी के आशीर्वाद से काशी की एक विधवा ब्राह्मणी के गर्भ से उत्पन्न हुए थे और ब्राह्मणी उस नवजात शिशु को लहरतारा ताल के पास फेंक आई उस तालाब के पास नीरू और नीमा नाम के दो जुलाहा (कपड़ा बुननेवाला) दंपत्ति रहते थे जो निसंतान थे नीरू ने तालाब के किनारे एक नवजात शिशु के रोने की आवाज सुनी वह दौड़कर तालाब के किनारे गया और उस नवजात शिशु को वहां से उठाकर अपने घर ले आया और उसी ने उस बालक का पालन पोषण किया।

बाद में उसी बालक को कबीर के नाम से जाना जाने लगा। कुछ लोगों का यह भी मानना है कि वे जन्म से मुसलमान थे और युवावस्था में स्वामी रामानंद के प्रभाव से उन्हें हिंदू धर्म की बातें मालूम हुई एक दिन रात के समय कबीर दास पंचगंगा घाट की सीढ़ियों पर गिर पड़े उसी समय रामानंद जी गंगा स्नान करने के लिए सीढ़ियों से उतर रहे थे और अचानक उनका पैर कबीर दास के शरीर पर पड़ गया और कबीर दास के मुख से तत्काल राम शब्द निकल पड़ा उसी राम को कबीर ने दीक्षा-मंत्र मान लिया और रामानंद जी को अपना गुरु स्वीकार कर लिया।

Kabir das biography in Hindi
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कुुछ कबीरपंथीयों का यह मानना है कि कबीर दास का जन्म काशी में लहरतारा तालाब में उत्पन्न कमल के मनोहर पुष्प के ऊपर बालक के रूप में हुआ था। कबीर दास ने अपनी रचनाओं में भी काशी का नाम लिया है।

कबीर दास ने अपने शब्दों में कहा है- “काशी में परगट भये ,रामानंद चेताये “

 नाम संत कबीरदास
 जन्म1398 ई०
 जन्म स्थानलहरतारा ताल, काशी
 नागरिकता भारतीय
 माता का नाम नीमा
पिता का नामनीरू
पत्नी का नाम लोई
पुत्र का नाम कमाल
पुत्री का नाम कमाली
मृत्यु1518 ई०
मृत्यु स्थानमगहर (उत्तर प्रदेश)
कर्मभूमिकाशी, बनारस
कार्यक्षेत्रकवि, समाज सुधारक, सूत काटकर कपड़ा बनाना
मुख्य रचनाएंरमैनी, साखी, सबद
 भाषा अवधी, सधुक्कड़ी, पंचमेल खिचड़ी
 शिक्षा निरक्षर

कबीर दास का जन्म स्थान :

Kabir Das का जन्म मगहर, काशी में हुआ था। कबीर दास ने अपनी रचना में भी वहां का उल्लेख किया है: “पहिले दरसन मगहर पायो पुनि काशी बसे आई” अर्थात काशी में रहने से पहले उन्होंने मगहर देखा था और मगहर आजकल वाराणसी के निकट ही है और वहां कबीर का मकबरा भी है।

कबीर दास की शिक्षा :

जब कबीर दास धीरे-धीरे बड़े होने लगे तो उन्हें इस बात का आभास हुआ कि वह ज्यादा पढ़े-लिखे नहीं हैं वह अपनी अवस्था के बालकों से एकदम भिन्न थे। मदरसे भेजने लायक साधन उनके माता—पिता के पास नहीं थे। जिसे हर दिन भोजन के लिए ही चिंता रहती हो, उस पिता के मन में कबीर को पढ़ाने का विचार भी कहा से आए। यही कारण है कि वह किताबी विद्या प्राप्त ना कर सके।

मसि कागद छुवो नहीं, कमल गही नहिं हाथ
पोथी पढ़ि-पढ़ि जग मुआ, पंडित भया न कोय।
ढाई आखर प्रेम का पढ़े सो पंडित होय।

कबीर दास का वैवाहिक जीवन :

Kabir Das का विवाह वनखेड़ी बैरागी की पालिता कन्या ‘लोई’ के साथ हुआ। कबीर दास की कमाल और कमाली नामक दो संतानें भी थी जबकि कबीर को कबीर पंथ में बाल ब्रह्मचारी माना जाता है इस पंथ के अनुसार कमाल उसका शिष्य था और कमाली तथा लोई उनकी शिष्या थी।

लोई शब्द का प्रयोग कबीर ने एक जगह कंबल के रूप में भी किया है कबीर की पत्नी और संतान दोनों थे।
एक जगह लोई को पुकार कर कबीर कहते हैं:-

कहत कबीर सुनो रे भाई
  हरि बिन राखल हार न कोई।

यह हो सकता है कि पहले लोई पत्नी होगी, बाद में कबीर ने इन्हें शिष्या बना लिया हो। आरंभ से ही कबीर हिंदू भाव की उपासना की ओर आकर्षित हो रहे थे अतः उन दिनों जब रामानंद जी की बड़ी धूम थी। अवश्य वे उनके सत्संग में भी सम्मिलित होते रहे होंगे।

रामानुज जी के शिष्य परंपरा में होते हुए भी रामानंद जी भक्ति का एक अलग उदार मार्ग निकाल रहे थे जिसमें जाति-पाति का भेद और खानपान का अचार दूर कर दिया गया था। अतः इसमें कोई संदेह नहीं कि कबीर को “राम” नाम रामानंद जी से ही प्राप्त हुआ। लेकिन आगे चलकर कबीर के राम, रामानंद के राम से भिन्न हो गए और उनके प्रवृत्ति निर्गुण उपासना की और दृढ़ हुई।

संत शब्द संस्कृत सत् प्रथमा का बहुवचन रूप है जिसका अर्थ होता है सज्जन और धार्मिक व्यक्ति। हिंदी में साधु पुरुषों के लिए यह शब्द व्यवहार में आया। कबीर, सूरदास, गोस्वामी तुलसीदास, आदि पुराने कवियों ने इन शब्द का व्यवहार साधु और परोपकारी पुरुष के अर्थ में किया है और उसके लक्षण भी दिए हैं।

यह आवश्यक नहीं है कि संत उसे ही कहा जाए जो निर्गुण ब्रह्म का उपासक हो। इसके अंतर्गत लोगमंगल विधायी में सभी सत्पुरुष आ जाते हैं, किंतु कुछ साहित्यकारों ने निर्गुणी भक्तों को ही संत की उपाधि दे दी और अब यह शब्द उसी वर्ग में चल पड़ा है।

मूर्ति पूजा को लक्षित करते हुए उन्होंने एक साखी हाजिर की है-

  पाहन पूजे हरि मिले, तो मैं पुजौपहार
   था ते तो चाकी भली, जासे पीसी खाय संसार।

कबीरदास के विचार :

कबीरदास ने जो व्यंग्यात्मक प्रहार किए और अपने को सभी ऋषि-मुनियों से आचारवान एवं सच्चरित्र घोषित किया, उसके प्रभाव से समाज का निम्न वर्ग प्रभावित न हो सका एवं आधुनिक विदेशी सभ्यता में दीक्षित एवं भारतीय सभ्यता तथा संस्कृति में कुछ लोगों को सच्ची मानवता का संदेश सुनने को मिला।

रविंद्र नाथ ठाकुर ने ब्रह्म समाज विचारों से मेल खाने के कारण कबीर की वाणी का अंग्रेजी अनुवाद प्रस्तुत किया और उससे आजीवन प्रभावित भी रहे। कबीर दास की रचना मुख्यतः साखियों एवं पदों में हुई है।

इसमें उनकी सहानुभूति तीव्र रूप से सामने आई है। संत परंपरा में हिंदी के पहले संत साहित्य भाष्टा जयदेव हैं। ये गीत गोविंदकार जयदेव से भिन्न है। शेनभाई, रैदास, पीपा, नानकदेव, अमरदास, धर्मदास, दादूदयाल, गरीबदास, सुंदरदास, दरियादास, कबीर की साधना हैं।

कबीर दास का व्यक्तित्व :

हिंदी साहित्य के हजार वर्षों के इतिहास में कबीर जैसा व्यक्तित्व लेकर कोई लेखक उत्पन्न नहीं हुआ।
ऐसा व्यक्तित्व तुलसीदास का भी था। परंतु तुलसीदास और कबीर में बड़ा अंतर था। यद्यपि दोनों ही भक्त थे, परंतु दोनों स्वभाव, संस्कार दृष्टिकोण में बिल्कुल अलग-अलग थे मस्ती स्वभाव को झाड़-फटकार कर चल देने वाले तेज ने कबीर को हिंदी साहित्य का अद्भुत व्यक्ति बना दिया।

उसी ने कबीर की वाणी में अनन्य असाधारण जीवन रस भर दिया। इसी व्यक्तित्व के कारण कबीर की उक्तियां श्रोता को बलपूर्वक आकर्षित करती हैं। इसी व्यक्तित्व के आकर्षण को सहृदय समालोचक संभाल नहीं पाता और रीझकर कबीर को कवि कहने में संतोष पाता है। ऐसे आकर्षक वक्ता को कवि ना कहा जाए तो और क्या कहा जाए?

चलिए अब कबीर दास की कृतियों के बारे में जानते हैं— संत कबीर दास ने स्वयं ग्रंथ नहीं लिखे, कबीर दास ने इन्हें अपने मुंह से बोला और उनके शिष्यों ने इन ग्रंथों को लिखा। वे एक ही ईश्वर को मानते थे और कर्मकांड के घोर विरोधी थे।

वे अवतार, मूर्ति, रोजा, ईद, मस्जिद, मंदिर आदि को नहीं मानते थे।

कबीर के नाम से मिले ग्रंथों की संख्या भिन्न-भिन्न लेखों के अनुसार भिन्न भिन्न है। एच. एच. विल्सन के अनुसार कबीर के नाम पर आठ ग्रंथ मौजूद हैं। विशप जी. एच. वेस्टकाॅट ने कबीर के 74 ग्रंथों की सूची प्रस्तुत की तो रामदास गौड़ ने हिंदुत्व में 71 पुस्तकें गिनाई हैं। कबीर की वाणी का संग्रह बीजक के नाम से प्रसिद्ध है।

इसके तीन भाग हैं—

  1. रमैनी
  2. सबद
  3. साखी

कबीर दास का साहित्यिक परिचय :

Kabir Das संत, कवि और समाज सुधारक थे। इसलिए उन्हें संत कबीरदास (Sant Kabir Das) भी कहा जाता है। उनकी कविता का प्रत्येक शब्द पाखंडीयों के पाखंडवाद और धर्म के नाम पर ढोंग और स्वार्थपूर्ति की निजी दुकानदारों को ललकारता हुआ आया और असत्य अन्याय की पोल खोलकर रख दी।

कबीर का अनुभूत सत्य अंधविश्वासों पर बारूदी मुकाबला था। उनके द्वारा बोला गया था कभी ऐसा जो आज तक के परिवेश पर सवालिया निशाना बनकर चोट भी करता था और खोट भी निकालता था।

कबीरदास की भाषा और शैली :

Kabir Das की भाषा शैली में उन्होंने अपनी बोलचाल की भाषा का ही प्रयोग किया है भाषा पर कबीर का जबरदस्त अधिकार था। वो अपनी जिस बात को जिस रूप में प्रकट करना चाहते थे उसे उसी रूप में प्रकट करने की क्षमता उनके पास थी।

भाषा भी मानो कबीर के सामने कुछ लाचार सी थी उसमें ऐसी हिम्मत नहीं थी कि उनकी इस फरमाइश को ना कह सके। वाणी के ऐसे बादशाह को साहित्य—रसिक कव्यांद का आस्वादन कराने वाला समझे तो उन्हें दोष नहीं दिया जा सकता। कबीर ने जिन तत्वों को अपनी रचना से ध्वनित करना चाहा है, उसके लिए कबीर की भाषा से ज्यादा साफ और जोरदार भाषा की संभावना भी नहीं है और इससे ज्यादा जरूरत भी नहीं है।

कबीर दर्शन :

यह उनके जीवन के बारे में अपने दर्शन का एक प्रतिबिंब हैं। उनके लेखन मुख्य रूप से पुनर्जन्म और कर्म की अवधारणा पर आधारित थे। कबीर के जीवन के बारे में यह स्पष्ट था कि वह एक बहुत ही साधारण तरीके से जीवन जीने में विश्वास करते थे।

उनका परमेश्वर की एकता की अवधारणा में एक मजबूत विश्वास था उनका एक विशेष संदेश था कि चाहे आप हिंदू भगवान या मुसलमान भगवान के नाम का जाप करें, किंतु सत्य यह है कि ऊपर केवल एक ही परमेश्वर है जो इस खूबसूरत दुनिया के निर्माता है।

जो लोग इन बातों से ही कबीर दास की महिमा पर विचार करते हैं वे केवल सतह पर ही चक्कर काटते हैं कबीर दास एक बहुत ही महान और जबरदस्त क्रांतिकारी पुरुष थे।

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कबीर जी की कविताएं | Kabir Das Poems in Hindi

कबीर दास ने अपने जीवन में कविताओं की एक बहुत बड़ी श्रृंखला लिखी, इनकी कविताएं आज भी बहुत प्रभावित करती हैं, मार्गदर्शन करती हैं मन को सुकून देती हैं इनकी कविताओं में एक अलग ही जादू है जो इन्हे दूसरे कवि से अलग बनाती है आइये जानते हैं कबीर दास जी ने अपने जीवन में कौन-कौन सी कविताये लिखी।

  • तेरा मेरा मनुवां
  • बहुरि नहिं आवना या देस
  • बीत गये दिन भजन बिना रे
  • नैया पड़ी मंझधार गुरु बिन कैसे लागे पार
  • राम बिनु तन को ताप न जाई
  • करम गति टारै नाहिं टरी
  • भजो रे भैया राम गोविंद हरी
  • दिवाने मन, भजन बिना दुख पैहौ
  • झीनी झीनी बीनी चदरिया
  • केहि समुझावौ सब जग अन्धा
  • काहे री नलिनी तू कुमिलानी
  • मन मस्त हुआ तब क्यों बोलै
  • रहना नहिं देस बिराना है
  • कबीर की साखियाँ
  • हमन है इश्क मस्ताना
  • कबीर के पद
  • नीति के दोहे
  • मोको कहां
  • साधो, देखो जग बौराना
  • सहज मिले अविनासी
  • तूने रात गँवायी सोय के दिवस गँवाया खाय के
  • रे दिल गाफिल गफलत मत कर
  • घूँघट के पट
  • गुरुदेव का अंग
  • सुमिरण का अंग
  • विरह का अंग
  • जर्णा का अंग
  • पतिव्रता का अंग
  • कामी का अंग
  • चांणक का अंग
  • रस का अंग
  • माया का अंग
  • कथनी-करणी का अंग
  • सांच का अंग
  • भ्रम-बिधोंसवा का अंग
  • साध-असाध का अंग
  • संगति का अंग
  • मन का अंग
  • चितावणी का अंग
  • भेष का अंग
  • साध का अंग
  • मधि का अंग
  • बेसास का अंग
  • सूरातन का अंग
  • जीवन-मृतक का अंग
  • सम्रथाई का अंग
  • उपदेश का अंग
  • कौन ठगवा नगरिया लूटल हो
  • मेरी चुनरी में परिगयो दाग पिया
  • अंखियां तो छाई परी
  • माया महा ठगनी हम जानी
  • सुपने में सांइ मिले
  • मोको कहां ढूँढे रे बन्दे
  • अवधूता युगन युगन हम योगी
  • साधो ये मुरदों का गांव
  • मन ना रँगाए, रँगाए जोगी कपड़ा
  • निरंजन धन तुम्हरा दरबार
  • ऋतु फागुन नियरानी हो

कबीर दास की मृत्यु :

Kabir Das ने काशी के निकट मगहर में अपने प्राण त्याग दिए। ऐसी मान्यता है कि मृत्यु के बाद उनके शव को लेकर भी विवाद उत्पन्न हो गया था हिंदू कहते हैं कि उनका अंतिम संस्कार हिंदू रीति से होना चाहिए और मुस्लिम कहते थे कि मुस्लिम रीति से।

इसी विवाद के चलते जब उनके शव से चादर हट गई तब लोगों ने वहां फूलों का ढेर पड़ा देखा और बाद में वहां से आधे फुल हिंदुओं ने उठाया और आधे फूल मुसलमानों ने।

मुसलमानों ने मुस्लिम रीति से और हिंदुओं ने हिंदू रीती से उन फूलों का अंतिम संस्कार किया। मगहर में कबीर की समाधि है उनके जन्म की तरह ही उनकी मृत्यु तिथि एवं घटना को भी लेकर मतभेद है।

किंतु अधिकतर विद्वान उनकी मृत्यु संवत् 1575 विक्रमी (सन 1518 ई०) को मानते हैं, लेकिन बाद में कुछ इतिहासकार उनकी मृत्यु को 1448 को मानते हैं।

कबीर दास के भगवान :

कबीर दास के गुरु रामानंद स्वामी ने कबीर दास को केवल एक ही मंत्र दिया था जिसका वो सदैव जाप करते थे और वो मंत्र था भगवान् राम का नाम।

कबीर दास का जीवन परिचय 100 शब्दों में :

Kabir Das संत, कवि और समाज सुधारक थे। कबीर दास का जन्म 1398 ई० में मगहर, काशी में हुआ था। वह जगत गुरु रामानंद स्वामी (Ramanand Swami) जी के आशीर्वाद से काशी की एक विधवा ब्राह्मणी के गर्भ से उत्पन्न हुए थे।

रामानंद जी, गंगा स्नान करने के लिए सीढ़ियों से उतर रहे थे कि तभी अचानक उनका पैर कबीर के शरीर पर पड़ गया उनके मुख से तत्काल राम-राम शब्द निकल पड़ा उसी राम को कबीर ने दीक्षा-मंत्र मान लिया और रामानंद जी को अपना गुरु स्वीकार कर लिया।

Kabir Das जब धीरे-धीरे बड़े होने लगे तो उन्हें इस बात का आभास हुआ कि वह ज्यादा पढ़े-लिखे नहीं हैं वह अपनी अवस्था के बालकों से एकदम भिन्न थे। उनके माता -पिता के पास इतने पैसे नहीं थे की वे उन्हें पढ़ा सकें।

यही कारण है की वो किताबी विद्या प्राप्त नहीं कर सके। संत कबीर दास ने किसी भी रचना या ग्रन्थ को स्वयं नहीं लिखा, कबीर दास ने इन्हें अपने मुंह से बोला और उनके शिष्यों ने इन ग्रंथों और रचनाओं को लिखा।

कबीर दास के दोहे | Kabir Das ke Dohe

Kabir Das एक महान व्यक्ति थे उनकी महानता ने ही उन्हें इतना महत्वपूर्ण व प्रसिद्ध इंसान बनाया।
Kabir Das ke Dohe भी उनकी तरह ही महान और मीठे हैं।

कबीर दास के प्रत्येक दोहे (Kabir Das ke Dohe) का अपने आप में एक महत्वपूर्ण अर्थ है यदि आप उनके दोहे को सुनकर उसे आप अपने जीवन में लागू करते हैं तो आपको अवश्य ही मन की शांति के साथ ईश्वर की प्राप्ति होगी।

मानुष जन्म दुलभ है, देह न बारम्बार।
तरवर थे फल झड़ी पड्या,बहुरि न लागे डारि॥

जाता है सो जाण दे, तेरी दसा न जाइ।
खेवटिया की नांव ज्यूं, घने मिलेंगे आइ॥

मान, महातम, प्रेम रस, गरवा तण गुण नेह।
ए सबही अहला गया, जबहीं कह्या कुछ देह॥

कबीर प्रेम न चक्खिया,चक्खि न लिया साव।
सूने घर का पाहुना, ज्यूं आया त्यूं जाव॥

इक दिन ऐसा होइगा, सब सूं पड़े बिछोह।
राजा राणा छत्रपति, सावधान किन होय॥

झिरमिर- झिरमिर बरसिया, पाहन ऊपर मेंह।
माटी गलि सैजल भई, पांहन बोही तेह॥

जिहि घट प्रेम न प्रीति रस, पुनि रसना नहीं नाम।
ते नर या संसार में , उपजी भए बेकाम ॥

लंबा मारग दूरि घर, बिकट पंथ बहु मार।
कहौ संतों क्यूं पाइए, दुर्लभ हरि दीदार॥

कबीर बादल प्रेम का, हम पर बरसा आई ।
अंतरि भीगी आतमा, हरी भई बनराई ॥

मैं मैं बड़ी बलाय है, सकै तो निकसी भागि।
कब लग राखौं हे सखी, रूई लपेटी आगि॥

यह तन काचा कुम्भ है,लिया फिरे था साथ।
ढबका लागा फूटिगा, कछू न आया हाथ॥

कबीर सीप समंद की, रटे पियास पियास ।
समुदहि तिनका करि गिने, स्वाति बूँद की आस ॥

सातों सबद जू बाजते घरि घरि होते राग ।
ते मंदिर खाली परे बैसन लागे काग ॥

कबीर रेख सिन्दूर की काजल दिया न जाई।
नैनूं रमैया रमि रहा दूजा कहाँ समाई ॥

नैना अंतर आव तू, ज्यूं हौं नैन झंपेउ।
ना हौं देखूं और को न तुझ देखन देऊँ॥

इस तन का दीवा करों, बाती मेल्यूं जीव।
लोही सींचौं तेल ज्यूं, कब मुख देखों पीव॥

कबीर देवल ढहि पड्या ईंट भई सेंवार ।
करी चिजारा सौं प्रीतड़ी ज्यूं ढहे न दूजी बार ॥

बिन रखवाले बाहिरा चिड़िये खाया खेत ।
आधा परधा ऊबरै, चेती सकै तो चेत ॥

जांमण मरण बिचारि करि कूड़े काम निबारि ।
जिनि पंथूं तुझ चालणा सोई पंथ संवारि ॥

कबीर कहा गरबियौ, ऊंचे देखि अवास ।
काल्हि परयौ भू लेटना ऊपरि जामे घास॥

सातों सबद जू बाजते घरि घरि होते राग ।
ते मंदिर खाली परे बैसन लागे काग ॥

तेरा संगी कोई नहीं सब स्वारथ बंधी लोइ ।
मन परतीति न उपजै, जीव बेसास न होइ ॥

मैं मैं मेरी जिनी करै, मेरी सूल बिनास ।
मेरी पग का पैषणा मेरी गल की पास ॥

हू तन तो सब बन भया करम भए कुहांडि ।
आप आप कूँ काटि है, कहै कबीर बिचारि॥

कबीर यह तनु जात है सकै तो लेहू बहोरि ।
नंगे हाथूं ते गए जिनके लाख करोडि॥

कबीर मंदिर लाख का, जडियां हीरे लालि ।
दिवस चारि का पेषणा, बिनस जाएगा कालि ॥

मनहिं मनोरथ छांडी दे, तेरा किया न होइ ।
पाणी मैं घीव नीकसै, तो रूखा खाई न कोइ ॥

करता था तो क्यूं रहया, जब करि क्यूं पछिताय ।
बोये पेड़ बबूल का, अम्ब कहाँ ते खाय ॥

मन जाणे सब बात जांणत ही औगुन करै ।
काहे की कुसलात कर दीपक कूंवै पड़े ॥

हिरदा भीतर आरसी मुख देखा नहीं जाई ।
मुख तो तौ परि देखिए जे मन की दुविधा जाई ॥

कबीर नाव जर्जरी कूड़े खेवनहार ।
हलके हलके तिरि गए बूड़े तिनि सर भार॥

पोथी पढ़ि पढ़ि जग मुआ, पंडित भया न कोय,
ढाई आखर प्रेम का, पढ़े सो पंडित होय।

बुरा जो देखन मैं चला, बुरा न मिलिया कोय,
जो दिल खोजा आपना, मुझसे बुरा न कोय।

झूठे को झूठा मिले, दूंणा बंधे सनेह
झूठे को साँचा मिले तब ही टूटे नेह ॥

कबीर सो धन संचिए जो आगे कूं होइ।
सीस चढ़ाए पोटली, ले जात न देख्या कोइ ॥

माया मुई न मन मुवा, मरि मरि गया सरीर ।
आसा त्रिष्णा णा मुई यों कहि गया कबीर ॥

जाति न पूछो साधु की, पूछ लीजिये ज्ञान,
मोल करो तरवार का, पड़ा रहन दो म्यान।

धीरे-धीरे रे मना, धीरे सब कुछ होय,
माली सींचे सौ घड़ा, ॠतु आए फल होय।

माला फेरत जुग भया, फिरा न मन का फेर,
कर का मनका डार दे, मन का मनका फेर।

तिनका कबहुँ ना निन्दिये, जो पाँवन तर होय,
कबहुँ उड़ी आँखिन पड़े, तो पीर घनेरी होय।

साधु ऐसा चाहिए, जैसा सूप सुभाय,
सार-सार को गहि रहै, थोथा देई उड़ाय।

निंदक नियरे राखिए, ऑंगन कुटी छवाय,
बिन पानी, साबुन बिना, निर्मल करे सुभाय।

अति का भला न बोलना, अति की भली न चूप,
अति का भला न बरसना, अति की भली न धूप।

बोली एक अनमोल है, जो कोई बोलै जानि,
हिये तराजू तौलि के, तब मुख बाहर आनि।

जिन खोजा तिन पाइया, गहरे पानी पैठ,
मैं बपुरा बूडन डरा, रहा किनारे बैठ।

दोस पराए देखि करि, चला हसन्त हसन्त,
अपने याद न आवई, जिनका आदि न अंत।

कबीर लहरि समंद की, मोती बिखरे आई।
बगुला भेद न जानई, हंसा चुनी-चुनी खाई।

कहत सुनत सब दिन गए, उरझि न सुरझ्या मन।
कही कबीर चेत्या नहीं, अजहूँ सो पहला दिन।

हिन्दू कहें मोहि राम पियारा, तुर्क कहें रहमाना,
आपस में दोउ लड़ी-लड़ी मुए, मरम न कोउ जाना।

कबीरा खड़ा बाज़ार में, मांगे सबकी खैर,
ना काहू से दोस्ती,न काहू से बैर।

दुर्लभ मानुष जन्म है, देह न बारम्बार,
तरुवर ज्यों पत्ता झड़े, बहुरि न लागे डार।

जो उग्या सो अन्तबै, फूल्या सो कुमलाहीं।
जो चिनिया सो ढही पड़े, जो आया सो जाहीं।

हाड़ जलै ज्यूं लाकड़ी, केस जलै ज्यूं घास।
सब तन जलता देखि करि, भया कबीर उदास।

पानी केरा बुदबुदा, अस मानुस की जात।
एक दिना छिप जाएगा,ज्यों तारा परभात।

कबीर कहा गरबियो, काल गहे कर केस।
ना जाने कहाँ मारिसी, कै घर कै परदेस।

जब गुण को गाहक मिले, तब गुण लाख बिकाई।
जब गुण को गाहक नहीं, तब कौड़ी बदले जाई।

तन को जोगी सब करें, मन को बिरला कोई।
सब सिद्धि सहजे पाइए, जे मन जोगी होइ।

झूठे सुख को सुख कहे, मानत है मन मोद।
खलक चबैना काल का, कुछ मुंह में कुछ गोद।

कबीर तन पंछी भया, जहां मन तहां उडी जाइ।
जो जैसी संगती कर, सो तैसा ही फल पाइ।

ऐसा कोई ना मिले, हमको दे उपदेस।
भौ सागर में डूबता, कर गहि काढै केस।

संत ना छाडै संतई, जो कोटिक मिले असंत
चन्दन भुवंगा बैठिया, तऊ सीतलता न तजंत।

कबीर सुता क्या करे, जागी न जपे मुरारी ।
एक दिन तू भी सोवेगा, लम्बे पाँव पसारी ।।

जब मैं था तब हरी नहीं, अब हरी है मैं नाही ।
सब अँधियारा मिट गया, दीपक देखा माही ।।

मन हीं मनोरथ छांड़ी दे, तेरा किया न होई।
पानी में घिव निकसे, तो रूखा खाए न कोई।

माया मुई न मन मुआ, मरी मरी गया सरीर।
आसा त्रिसना न मुई, यों कही गए कबीर ।

कबीर सो धन संचे, जो आगे को होय।
सीस चढ़ाए पोटली, ले जात न देख्यो कोय।

हरिया जांणे रूखड़ा, उस पाणी का नेह।
सूका काठ न जानई, कबहूँ बरसा मेंह॥

बड़ा हुआ तो क्या हुआ जैसे पेड़ खजूर।
पंछी को छाया नहीं फल लागे अति दूर ॥

रात गंवाई सोय के, दिवस गंवाया खाय ।
हीरा जन्म अमोल सा, कोड़ी बदले जाय ॥

पाछे दिन पाछे गए हरी से किया न हेत ।
अब पछताए होत क्या, चिडिया चुग गई खेत ।।

बुरा जो देखन मैं चला, बुरा न मिलिया कोय ।
जो घर देखा आपना, मुझसे बुरा णा कोय॥

कबीर चन्दन के निडै नींव भी चन्दन होइ।
बूडा बंस बड़ाइता यों जिनी बूड़े कोइ ॥

क्काज्ल केरी कोठारी, मसि के कर्म कपाट।
पांहनि बोई पृथमीं,पंडित पाड़ी बात॥

मूरख संग न कीजिए ,लोहा जल न तिराई।
कदली सीप भावनग मुख, एक बूँद तिहूँ भाई ॥

ऊंचे कुल क्या जनमिया जे करनी ऊंच न होय।
सुबरन कलस सुरा भरा साधू निन्दै सोय ॥

कबीर संगति साध की, कड़े न निर्फल होई ।
चन्दन होसी बावना, नीब न कहसी कोई ॥

जानि बूझि साँचहि तजै, करै झूठ सूं नेह ।
ताकी संगति रामजी, सुपिनै ही जिनि देहु ॥

मन मरया ममता मुई, जहं गई सब छूटी।
जोगी था सो रमि गया, आसणि रही बिभूति ॥

तरवर तास बिलम्बिए, बारह मांस फलंत ।
सीतल छाया गहर फल, पंछी केलि करंत ॥

काची काया मन अथिर थिर थिर  काम करंत ।
ज्यूं ज्यूं नर  निधड़क फिरै त्यूं त्यूं काल हसन्त ॥

जल में कुम्भ, कुम्भ में जल है बाहर भीतर पानी ।
फूटा कुम्भ जल जलहि समाना यह तथ कह्यौ गयानी ॥

तू कहता कागद की लेखी मैं कहता आँखिन की देखी ।
मैं कहता सुरझावन हारि, तू राख्यौ उरझाई रे ॥

मन के हारे हार है मन के जीते जीत ।
कहे कबीर हरि पाइए मन ही की परतीत ॥

जब मैं था तब हरि नहीं अब हरि है मैं नाहीं ।
प्रेम गली अति सांकरी जामें दो न समाहीं ॥

पढ़ी पढ़ी के पत्थर भया लिख लिख भया जू ईंट ।
कहें कबीरा प्रेम की लगी न एको छींट॥

जाति न पूछो साधू की पूछ लीजिए ज्ञान ।
मोल करो तरवार को पडा रहन दो म्यान ॥

साधु भूखा भाव का धन का भूखा नाहीं ।
धन का भूखा जो फिरै सो तो साधु नाहीं ॥

पढ़े गुनै सीखै सुनै मिटी न संसै सूल।
कहै कबीर कासों कहूं ये ही दुःख का मूल ॥

प्रेम न बाडी उपजे प्रेम न हाट बिकाई ।
राजा परजा जेहि रुचे सीस देहि ले जाई ॥

कबीर सोई पीर है जो जाने पर पीर ।
जो पर पीर न जानई  सो काफिर बेपीर ॥

हाड जले लकड़ी जले जले जलावन हार ।
कौतिकहारा भी  जले कासों करूं पुकार ॥

रात गंवाई सोय कर दिवस गंवायो खाय ।
हीरा जनम अमोल था कौड़ी बदले जाय ॥

मन मैला तन ऊजला बगुला कपटी अंग ।
तासों तो कौआ भला तन मन एकही रंग ॥

कबीर हमारा कोई नहीं हम काहू के नाहिं ।
पारै पहुंचे नाव ज्यौं मिलिके बिछुरी जाहिं ॥

देह धरे का दंड है सब काहू को होय ।
ज्ञानी भुगते ज्ञान से अज्ञानी भुगते रोय॥

हीरा परखै जौहरी शब्दहि परखै साध ।
कबीर परखै साध को ताका मता अगाध ॥

एकही बार परखिये ना वा बारम्बार ।
बालू तो हू किरकिरी जो छानै सौ बार॥

पतिबरता मैली भली गले कांच की पोत ।
सब सखियाँ में यों दिपै ज्यों सूरज की जोत ॥

अंतिम शब्द :

हमें उम्मीद है आपको Kabir Das Ka Jivan Parichay पसंद आया होगा और आपको Kabir Das Ki Biography के बारे में संपूर्ण जानकारी प्राप्त हो गई होगी यदि आपको हमारे द्वारा बताई गई जानकारी अच्छी लगी हो तो आप हमारे इस Article को अपने मित्रों के साथ भी Share कर सकते हैं, धन्यवाद।

अक्सर पूछे जाने वाले सवाल :

Kabir का जन्म कब और कहां हुआ?

Kabir Das का जन्म मगहर, काशी में हुआ था। कबीर दास ने अपनी रचना में भी वहां का उल्लेख किया है: “पहिले दरसन मगहर पायो पुनि काशी बसे आई” अर्थात काशी में रहने से पहले उन्होंने मगहर देखा था और मगहर आजकल वाराणसी के निकट ही है और वहां कबीर का मकबरा भी है।

कबीर दास का जन्म कैसे हुआ था?

कबीर दास के जन्म के संबंध में लोगों द्वारा अनेक प्रकार की बातें कही जाती हैं कुछ लोगों का कहना है कि वह जगत गुरु रामानंद स्वामी जी के आशीर्वाद से काशी की एक विधवा ब्राह्मणी के गर्भ से उत्पन्न हुए थे।

कबीर दास जी के 5 दोहे?

मूरख संग न कीजिए ,लोहा जल न तिराई।
कदली सीप भावनग मुख, एक बूँद तिहूँ भाई ॥

कबीर सो धन संचिए जो आगे कूं होइ।
सीस चढ़ाए पोटली, ले जात न देख्या कोइ ॥

मन के हारे हार है मन के जीते जीत ।
कहे कबीर हरि पाइए मन ही की परतीत ॥

हीरा परखै जौहरी शब्दहि परखै साध ।
कबीर परखै साध को ताका मता अगाध ॥

इक दिन ऐसा होइगा, सब सूं पड़े बिछोह।
राजा राणा छत्रपति, सावधान किन होय॥

कबीर दास किस की कृतियां किस भाषा में लिखी गयी?

कबीर की कृतियाँ हिन्दी भाषा में लिखी गईं थी जिन्हें समझना आसान था। वह लोगों को जागरूक करने के लिए दोहों में लिखते थे।

कबीर दास जी का जन्म कब हुआ था?

कबीरदास का जन्म 1398 ई० में हुआ था।

कबीर के माता पिता एवं गुरु का नाम क्या था?

कबीर के माता पिता का नाम नीमा और नीरू था और कबीरदास के गुरु का नाम रामानंद स्वामी था।

कबीरदास किसकी भक्ति करते थे?

कबीर दास निर्गुण ब्रह्म के उपासक थे वे एक ही ईश्वर को मानते थे वे अंधविश्वास, धर्म व पूजा के नाम पर होने वाले आडंबरों के विरोधी थे।

कबीर के प्रमुख ग्रंथों के नाम बताइए?

कबीर के प्रमुख ग्रंथों के नाम बीजक, कबीर ग्रंथावली, सखी ग्रंथ और अनुराग सागर आदि हैं।

कबीर दास के कितने गुरु थे?

कबीर दास ने अपना एकमात्र गुरु रामानंद स्वामी को बनाया था।

कबीर दास जी की मृत्यु?

Kabir Das ने काशी के निकट मगहर में अपने प्राण त्याग दिए।

कबीर के आराध्य कौन है?

कबीर ने परमपिता परमेश्वर “ब्रह्मा” को अपना आराध्य माना था।

कबीर दास जी ने सबसे बड़ा पाप किसे कहा है?

कबीर ने अपनी रचनाओं में कहा है झूठ बोलने से बड़ा कोई पाप नहीं है अर्थात झूठ बोलना सबसे बड़ा पाप है।

बड़ा हुआ तो क्या हुआ का अर्थ?

बड़ा हुआ तो क्या हुआ का अर्थ है आप कभी भी उस खजूर के पेड़ की तरह ना बने जो भले ही बड़ा है लेकिन किसी राहगीर को छाया प्रदान नहीं कर सकता, भले ही उसमें फल लग जाए लेकिन कोई भूखा उन्हें आसानी से पकड़ ही ना पाए तो ऐसे बड़े होने का क्या फायदा।

कबीर दास ने कितने दोहे लिखे थे?

कबीरदास ने खासकर अपनी रचनाओं से प्रभाव डाला और उन्होंने 25 दोहे लिखे थे।

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59 thoughts on “कबीर दास की जीवनी 2024 | Kabir Das Biography in Hindi”

  1. सभी पोस्ट बहुत ही शानदार हैं। आपने एक बहुत ही जानकारीपूर्ण लेख साझा किया है, इससे लोगों को बहुत मदद मिलेगी, मुझे उम्मीद ही नहीं पूर्ण विश्वास है कि आप भविष्य में इसी तरह के पोस्ट लिखते रहेगें। इस उपयोगी पोस्ट के लिए बहुत-बहुत धन्यवाद और इसे जारी रखें।

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