कबीर दास की कविताएं | Poems of Kabir Das in Hindi

Kabir Das जी ने अनेक ग्रन्थ, रचनाएं और कविताएं लिखी जो आज भी काफी बड़ी मात्रा में देखे और पढ़े जाते हैं। हम इस Post में आपको कबीर दास की कविताओं (Poems of Kabir Das in Hindi) के बारे में बताएँगे जो आज भी काफी प्रसिद्ध हैं तो चलिए कबीर जी की कविता के बारे में विस्तार से जानते हैं।

Poems of Kabir Das in Hindi

कबीर जी की कविताएं :

तेरा मेरा मनुवां।

तेरा मेरा मनुवां कैसे एक होइ रे ।
मै कहता हौं आँखन देखी, तू कहता कागद की लेखी ।
मै कहता सुरझावन हारी, तू राख्यो अरुझाई रे ॥

मै कहता तू जागत रहियो, तू जाता है सोई रे ।
मै कहता निरमोही रहियो, तू जाता है मोहि रे ॥

जुगन-जुगन समझावत हारा, कहा न मानत कोई रे ।
तू तो रंगी फिरै बिहंगी, सब धन डारा खोई रे ॥

सतगुरू धारा निर्मल बाहै, बामे काया धोई रे ।
कहत कबीर सुनो भाई साधो, तब ही वैसा होई रे ॥

बहुरि नहिं आवना या देस।

जो जो गए बहुरि नहि आए, पठवत नाहिं सॅंस ॥ १॥
सुर नर मुनि अरु पीर औलिया, देवी देव गनेस ॥ २॥

धरि धरि जनम सबै भरमे हैं ब्रह्मा विष्णु महेस ॥ ३॥
जोगी जङ्गम औ संन्यासी, दीगंबर दरवेस ॥ ४॥

चुंडित, मुंडित पंडित लोई, सरग रसातल सेस ॥ ५॥
ज्ञानी, गुनी, चतुर अरु कविता, राजा रंक नरेस ॥ ६॥

कोइ राम कोइ रहिम बखानै, कोइ कहै आदेस ॥ ७॥
नाना भेष बनाय सबै मिलि ढूऊंढि फिरें चहुँ देस ॥ ८॥
कहै कबीर अंत ना पैहो, बिन सतगुरु उपदेश ॥ ९॥

बीत गये दिन भजन बिना रे।

बीत गये दिन भजन बिना रे ।
भजन बिना रे, भजन बिना रे ॥

बाल अवस्था खेल गवांयो ।
जब यौवन तब मान घना रे ॥

लाहे कारण मूल गवाँयो ।
अजहुं न गयी मन की तृष्णा रे ॥

कहत कबीर सुनो भई साधो ।
पार उतर गये संत जना रे ॥

नैया पड़ी मंझधार गुरु बिन कैसे लागे पार।

नैया पड़ी मंझधार गुरु बिन कैसे लागे पार।
साहिब तुम मत भूलियो लाख लो भूलग जाये।

हम से तुमरे और हैं तुम सा हमरा नाहिं।
अंतरयामी एक तुम आतम के आधार।

जो तुम छोड़ो हाथ प्रभुजी कौन उतारे पार।
गुरु बिन कैसे लागे पार।

मैं अपराधी जन्म को मन में भरा विकार।
तुम दाता दुख भंजन मेरी करो सम्हार।

अवगुन दास कबीर के बहुत गरीब निवाज़।
जो मैं पूत कपूत हूं कहौं पिता की लाज।
गुरु बिन कैसे लागे पार ॥

राम बिनु तन को ताप न जाई।

जल में अगन रही अधिकाई ॥
राम बिनु तन को ताप न जाई ॥

तुम जलनिधि मैं जलकर मीना ।
जल में रहहि जलहि बिनु जीना ॥
राम बिनु तन को ताप न जाई ॥

तुम पिंजरा मैं सुवना तोरा ।
दरसन देहु भाग बड़ मोरा ॥
राम बिनु तन को ताप न जाई ॥

तुम सद्गुरु मैं प्रीतम चेला ।
कहै कबीर राम रमूं अकेला ॥
राम बिनु तन को ताप न जाई ॥

करम गति टारै नाहिं टरी।

मुनि वसिष्ठ से पण्डित ज्ञानी, सिधि के लगन धरि ।
सीता हरन मरन दसरथ को, बनमें बिपति परी ॥ १॥

कहॅं वह फन्द कहाँ वह पारधि, कहॅं वह मिरग चरी ।
कोटि गाय नित पुन्य करत नृग, गिरगिट-जोन परि ॥ २॥

पाण्डव जिनके आप सारथी, तिन पर बिपति परी ।
कहत कबीर सुनो भै साधो, होने होके रही ॥ ३॥

भजो रे भैया राम गोविंद हरी।

राम गोविंद हरी भजो रे भैया राम गोविंद हरी ॥
जप तप साधन नहिं कछु लागत, खरचत नहिं गठरी ॥

संतत संपत सुख के कारन, जासे भूल परी ॥
कहत कबीर राम नहीं जा मुख, ता मुख धूल भरी ॥

दिवाने मन, भजन बिना दुख पैहौ।

पहिला जनम भूत का पै हौ, सात जनम पछिताहौउ।
काँटा पर का पानी पैहौ, प्यासन ही मरि जैहौ ॥ १॥

दूजा जनम सुवा का पैहौ, बाग बसेरा लैहौ ।
टूटे पंख मॅंडराने अधफड प्रान गॅंवैहौ ॥ २॥

बाजीगर के बानर होइ हौ, लकडिन नाच नचैहौ ।
ऊॅंच नीच से हाय पसरि हौ, माँगे भीख न पैहौ ॥ ३॥

तेली के घर बैला होइहौ, आॅंखिन ढाँपि ढॅंपैहौउ ।
कोस पचास घरै माँ चलिहौ, बाहर होन न पैहौ ॥ ४॥

पॅंचवा जनम ऊॅंट का पैहौ, बिन तोलन बोझ लदैहौ ।
बैठे से तो उठन न पैहौ, खुरच खुरच मरि जैहौ ॥ ५॥

धोबी घर गदहा होइहौ, कटी घास नहिं पैंहौ ।
लदी लादि आपु चढि बैठे, लै घटे पहुँचैंहौ ॥ ६॥

पंछिन माँ तो कौवा होइहौ, करर करर गुहरैहौ ।
उडि के जय बैठि मैले थल, गहिरे चोंच लगैहौ ॥ ७॥

सत्तनाम की हेर न करिहौ, मन ही मन पछितैहौउ ।
कहै कबीर सुनो भै साधो, नरक नसेनी पैहौ ॥ ८॥

झीनी झीनी बीनी चदरिया।

काहे कै ताना काहे कै भरनी
कौन तार से बीनी चदरिया

इडा पिङ्गला ताना भरनी
सुखमन तार से बीनी चदरिया

आठ कँवल दल चरखा डोलै
पाँच तत्त्व गुन तीनी चदरिया

साँ को सियत मास दस लागे
ठोंक ठोंक कै बीनी चदरिया

सो चादर सुर नर मुनि ओढी
ओढि कै मैली कीनी चदरिया

दास कबीर जतन करि ओढी
ज्यों कीं त्यों धर दीनी चदरिया

केहि समुझावौ सब जग अन्धा।

इक दुइ होयॅं उन्हैं समुझावौं,
सबहि भुलाने पेटके धन्धा ।

पानी घोड पवन असवरवा,
ढरकि परै जस ओसक बुन्दा ॥ १॥

गहिरी नदी अगम बहै धरवा,
खेवन- हार के पडिगा फन्दा ।

घर की वस्तु नजर नहि आवत,
दियना बारिके ढूँढत अन्धा ॥ २॥

लागी आगि सबै बन जरिगा,
बिन गुरुज्ञान भटकिगा बन्दा ।

कहै कबीर सुनो भाई साधो,
जाय लिङ्गोटी झारि के बन्दा ॥ ३॥

काहे री नलिनी तू कुमिलानी।

तेरे ही नालि सरोवर पानी
जल में उतपति जल में बास, जल में नलिनी तोर निवास

ना तलि तपति न ऊपरि आगि, तोर हेतु कहु कासनि लागि
कहे ‘कबीर जे उदकि समान, ते नहिं मुए हमारे जान

मन मस्त हुआ तब क्यों बोलै।

हीरा पायो गाँठ गँठियायो, बार-बार वाको क्यों खोलै।
हलकी थी तब चढी तराजू, पूरी भई तब क्यों तोलै।

सुरत कलाली भई मतवाली, मधवा पी गई बिन तोले।
हंसा पायो मानसरोवर, ताल तलैया क्यों डोलै।

तेरा साहब है घर माँहीं बाहर नैना क्यों खोलै।
कहै ‘कबीर सुनो भई साधो, साहब मिल गए तिल ओलै॥

रहना नहिं देस बिराना है।

यह संसार कागद की पुडिया, बूँद पडे गलि जाना है।
यह संसार काँटे की बाडी, उलझ पुलझ मरि जाना है॥

यह संसार झाड और झाँखर आग लगे बरि जाना है।
कहत ‘कबीर सुनो भाई साधो, सतुगरु नाम ठिकाना है॥

कबीर की साखियाँ।

कस्तूरी कुँडल बसै, मृग ढ़ुढ़े बब माहिँ
ऎसे घटि घटि राम हैं, दुनिया देखे नाहिँ

प्रेम ना बाड़ी उपजे, प्रेम ना हाट बिकाय
राजा प्रजा जेहि रुचे, सीस देई लै जाय

माला फेरत जुग गाया, मिटा ना मन का फेर
कर का मन का छाड़ि, के मन का मनका फेर

माया मुई न मन मुआ, मरि मरि गया शरीर
आशा तृष्णा ना मुई, यों कह गये कबीर

झूठे सुख को सुख कहे, मानत है मन मोद
खलक चबेना काल का, कुछ मुख में कुछ गोद

वृक्ष कबहुँ नहि फल भखे, नदी न संचै नीर
परमारथ के कारण, साधु धरा शरीर

साधु बड़े परमारथी, धन जो बरसै आय
तपन बुझावे और की, अपनो पारस लाय

सोना सज्जन साधु जन, टुटी जुड़ै सौ बार
दुर्जन कुंभ कुम्हार के, एके धकै दरार

जिहिं धरि साध न पूजिए, हरि की सेवा नाहिं
ते घर मरघट सारखे, भूत बसै तिन माहिं

मूरख संग ना कीजिए, लोहा जल ना तिराइ
कदली, सीप, भुजंग-मुख, एक बूंद तिहँ भाइ

तिनका कबहुँ ना निन्दिए, जो पायन तले होय
कबहुँ उड़न आखन परै, पीर घनेरी होय

बोली एक अमोल है, जो कोइ बोलै जानि
हिये तराजू तौल के, तब मुख बाहर आनि

ऐसी बानी बोलिए,मन का आपा खोय
औरन को शीतल करे, आपहुँ शीतल होय

लघता ते प्रभुता मिले, प्रभुत ते प्रभु दूरी
चिट्टी लै सक्कर चली, हाथी के सिर धूरी

निन्दक नियरे राखिये, आँगन कुटी छवाय
बिन साबुन पानी बिना, निर्मल करे सुभाय

मानसरोवर सुभर जल, हंसा केलि कराहिं
मुकताहल मुकता चुगै, अब उड़ि अनत ना जाहिं

हमन है इश्क मस्ताना।

हमन है इश्क मस्ताना, हमन को होशियारी क्या ?
रहें आजाद या जग से, हमन दुनिया से यारी क्या ?

जो बिछुड़े हैं पियारे से, भटकते दर-ब-दर फिरते,
हमारा यार है हम में हमन को इंतजारी क्या ?

खलक सब नाम अनपे को, बहुत कर सिर पटकता है,
हमन गुरनाम साँचा है, हमन दुनिया से यारी क्या ?

न पल बिछुड़े पिया हमसे न हम बिछड़े पियारे से,
उन्हीं से नेह लागी है, हमन को बेकरारी क्या ?

कबीरा इश्क का माता, दुई को दूर कर दिल से,
जो चलना राह नाज़ुक है, हमन सिर बोझ भारी क्या ?

इन्हे भी पढ़ें :

Share Post👇
WhatsApp Group Join Now
Telegram Group Join Now

Leave a Comment